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लोकपर्व फूलदेई त्यौहार को बच्चो ने मनाया धूमधाम से,लोक संस्कृति व पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है फूलदेई

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जिले में लोक संस्कृति और पर्यावरण संरक्षण का बाल पर्व फुलदेई धूमधाम से मनाया गया। बच्चों ने घर-घर जाकर फूलों से देहली पूजन किया। उन्होंने फूलदेई छम्मा देई का मंगल गान गाकर हर घर में सुख और समृद्धि का आशीर्वाद भी दिया। चैत्र मास का पहला दिन को फूल संक्रांत के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन उत्तराखंड का लोक पर्व फूलदेई मनाया जाता है। फुलदेई के लिए शुक्रवार की शाम से ही बच्चे तैयारियों में जुट गए। उन्होंने शाम को रंग बिरंगे फूल चुनकर एकत्र किए।

फूलदेई पर्व पर बच्चों का उत्साह देखने लायक था। उन्होंने घर-घर जाकर ‘फूलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भर भकार का मंगल गान करते हुए देहली पूजन किया। बदले में उन्हें हर घर से गुड़ व चावल उपहार में दिए गए। जिनका उपयोग रात के समय पारंपरिक व्यंजन साई या खीरखाजा बनाने में किया गया। आचार्य पं कैलाश उपध्य्याय ने बताया कि फुलदेई का हमारी संस्कृति में विशेष महत्व है। यह त्योहार बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक सबको जोड़कर रखने वाला है। इसमें पर्यावरण संरक्षण का संदेश छिपा है तो बच्चों को परंपराओं से जोड़ने का अवसर भी दिया गया है। सभी घरों से अन्न का आदान-प्रदान होने से यह त्योहार आपसी मेलजोल व सद्भावना को बढ़ाने वाला भी है। फूलदेई, छम्मा देई दैणी द्वार भर भकार के सभी शब्दों का व्यापक अर्थ है। फूलदेई का अर्थ है आपकी देहली फूलों से भरपूर तथा मंगलकारी हो। छम्मा देई का अर्थ है देहली क्षमाशील तथा सबकी रक्षा करने वाली हो। दैणी द्वार का अर्थ है देहली घर तथा सभी आने वालों के लिए सफल हो। भर भकार का अर्थ है सबके घरों में अन्न, धन का पूर्ण भंडार भरे। फूलदेई पर अब बच्चों के हाथों में रिंगाल की टोकरी नहीं दिखती है। अब बच्चे पॉलीथिन, थाली, तथा स्टील के बने डिब्बों को लेकर पर्व मनाते हैं। पहले रिंगाल की टोकरी को एक सप्ताह पहले मिट्टी से लीपकर उसमें ऐपण दिए जाते थे। इसके बाद फूलदेई पर्व मनाया जाता था। बाद में उसी टोकरी में चैत्र नवरात्र पर हरेला भी बोया जाता था।

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