केशव भट्ट
आज एक बुजुर्ग से मुलाकात हुवी तो उनके बाजार में आने का कारण यूं ही बस पूछ बैठा. इस पर उन्होंने अपनी व्यथा सुनाई कि, ‘सारे दस्तावेज दे दिए लेकिन फिर भी बार—बार कह देते हैं कि ये लाओ—वो लाओ… राज्य आंदोलन के समय के कई सारे दस्तावेज—पेपर दे दिए लेकिन अभी तक मुझे आंदोलनकारी का दर्जा नहीं दिया गया..’ बुजुर्ग की बातें सुन मन कुम्हला जैसा गया. उम्र के इस पढ़ाव में आंदोलनकारी का तमंगा पाने की उनकी बचकानी जिद्व समझ से परे लगी, जबकि अपनी पूरी जवानी उन्होंने समाज के लिए ही समर्पित कर दी.
अंग्रेजों से देश को आजाद कराने के लिए निस्वार्थ भाव से जनता ने लंबे वक्त तक लड़ाइयां लड़ी. तब कभी किसी के दिलो—दिमाग में ये ख्यालात नहीं था कि आगे वो इसका फायदा उठाएंगे या उन्हें या उनके वंशजों को इसका फायदा मिलेगा. अनगिनत लोग आजादी की लड़ाई में शहीद हो गए. देश आजाद हुआ तो बाद में भारत को आजाद कराने के नाम पर कई जनों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के तमगों से नवाजा गया. ये उन शहीदों और जीवित बचे स्वतंत्रता लड़ाकों के प्रति सरकार का सम्मान था. बाद में धीरे—धीरे देश के अंदर बड़े राज्यों का वहां की जनता की मांग पर विभाजन कर अलग राज्य बनाने का जो सिलसिला शुरू हुआ वो वर्तमान में 28 राज्य और 9 केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद अभी थोड़ा सा थमा है. आगे क्या होगा वो भविष्य के गर्त में छिपा हुआ है.
इसी क्रम में उत्तर प्रदेश से अलग कर पहाड़ी उत्तराखंड राज्य की मांग भी उठी. दशकों तक आंदोलन चले. उस दरम्यान आंदोलनकारियों का हर तरीके से दमन भी किया गया और कई आंदोलनकारी शहीद भी हुए. उस दौर में बच्चे से लेकर जवान—बूढ़े हर कोई किसी न किसी तरह से परेशान तो रहे लेकिन अलग पहाड़ी राज्य के नाम पर वो सब सहन करते रहे. लोगों में जोश था, जिसका हर कोई किसी न किसी तरह से सहायता करने में जुटा हुवा था. तब के वक्त में ऐसा लगा था कि जैसे यूपी सरीखे अंग्रेज से उत्तराखंड को मुक्त कराना है.
आखिरकार 9 नवंबर 2000 को उत्तराखण्ड को सत्ताइसवें राज्य के रूप में भारत गणराज्य में शामिल किया गया और उत्तरांचल राज्य के नाम पर मुहर लगा दी गई, जो कि बाद में जनता की मांग पर उत्तराखंड के नाम पर परिवर्तित कर दिया गया. गैरसैंण की वजाय देहरादून राजधानी बनाने पर जनता में फिर से उबाल आया तो 2020 में गैरसैंण को राजधानी का दर्जा दे दिया गया. अब आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र के बाद उत्तराखंड देश का ऐसा चौथा राज्य बन गया है जिनके पास एक से अधिक राजधानियां हैं. चमोली जिले में पड़ने वाला गैरसैंण उत्तराखंड की पामीर के नाम से जानी जाने वाली दुधाटोली पहाड़ी पर स्थित है, जहां पेन्सर की छोटी-छोटी पहाड़ियां फैली हुवी हैं. स्थायी राजधानी का ये मुद्दा राजनीतिज्ञों की एक अबूज पहेली है जो वो कभी सुलझाने से रहे.
बहरहाल! उत्तराखंड बनने के बाद 2002 में नारायण दत्त तिवारी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने और उत्तराखंड में पांच साल तक मुख्यमंत्री बने रहने वाले पहले व्यक्ति रहे. जबकि वो कहते रहे कि, उत्तराखंड मेरी लाश पर बनेगा. अपने कार्यकाल में गैरसैंण को स्थायी राजधानी बनाने की मांग पर उन्होंने उत्तराखंड राज्य बनाने के लिए आंदोलनकारियों को चिंहित करने की कवायद शुरू करवा दी. अंग्रेजों की ‘फूट डालों और राज करो’ की नीति पर बकायदा उन्होंने राज्य के जाबांज आंदोलनकारियों को कई तरह के सौगातों से नवाजने की, मसलन.. पेंशन, मुफत यात्रा आदि का जो लालच दिया उसमें सभी चक्करघिन्नी की तरह नाचने लग गए. और! ये सिलसिला आज तक भी चलते आ रहा है. राज्य बनने से क्या—कुछ मिला उस पर बातें आज भी सिर्फ हवा—हवाई ही रह गई हैं. अब तो बकायदा हर साल नौ नवंबर को राज्य निर्माण का सरकारी आयोजन भव्य रूप से कर करोड़ों रूपये आयोजनों की भेंट चढ़ा दिए जाने का सिलसिला शुरू हो गया है.
काश..! जनता के बीच से छांटे गए ये आंदोलनकारी अपने अंह को त्याग राज्य सरकार द्वारा दी गई सभी सुविधाओं का तर्पण कर दें तो सायद इस पहाड़ी राज्य का कुछ भला हो सके. लेकिन इन आंदोलनकारियों को कौन समझाए कि उत्तराखंड आंदोलन में बच्चे, युवा, महिला, बुजुर्ग सभी की भूमिका किसी न किसी रूप में तो थी ही, अब जब सरकार ने उन्हें आंदोलनकारी का तंमगा दे भी दिया है तो वो कैसे अन्य लोगों से अलग और अपने को महत्वपूण समझने की भूल करने लगे हैं…?
लेकिन..! लगता नहीं कि नारायण दत्त तिवारीजी के अभिशप्त आर्शीवाद और आज के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं से जनता को कभी मुक्ति मिलेगी. और न ही ये बात तमगों से नवाजे गए आंदोलनकारी ही कभी समझने की कोशिश करेंगे. क्योंकि उम्र बढ़ने के सांथ ही दिमाग भी बूढ़ा होने लगता है..