एक डॉक्टर से मुलाकात
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बचपन से लेकर आज तक न जाने कितने डॉक्टरों से मेरा पाला पड़ा। बचपन में स्कूल में सालाना एक बार लगने वाला ‘भेद’ नाम का कुख्यात टीका इतना दुखदायी होता था कि इस लगाने वाले ‘भेदुवा डॉक्टर’ के नाम से ही दहशत हो जाती थी। उम्र के साथ-साथ अस्पतालों से जो पाला पड़ा वह आज तक नहीं छूटा है। वर्षों पहले मॉं चली गई और उसके जाने के बाद मुझे पता चला कि वह मुझसे बहुत प्रेम करती थी।
हांलाकि मॉं से मेरी खूब नोकझोंक हुआ करती थी। जब भी मुझे हिमालय यात्रा में जाना होता था, उससे पहले मैं माँ की चापलूसी में जुट जाता था। यह बात वह खूब समझती भी थी। कुछ दिन ना-नुकुर के बाद वह मुझे जाने देने के लिए पिता जी को मना ही लेती थी। पिताजी हुए रिटायर्ड फौजी! कायदे कानूनों के प्रति उनका रवैया बेहद सख्त़ रहता था। उनकी नज़र में मॉं के अलावा परिवार के बाकी सब फौजी जवान थे और वह बिना पक्षपात किये सभी को अपने फौजी अंदाज से हांकना पसंद करने वाले हुवे।
मॉं के जाने के बाद मेरी रीढ़ की हड्डी ने ख़तरे का सायरन बजाया तो मैं तत्काल हल्द्वानी के अपने मित्र खत्रीजी की शरण में पहुंचा। खत्रीजी का पूरा नाम किशन चन्द्र सिंह खत्री है। वह खुद पुराने मरीज हैं। लेकिन हैं अद्भुत शख्सियत के मालिक ! कहते हैं पुराना मरीज आधा डॉक्टर होता है। खत्री जी ने अपनी बीमारी के बारे में इतना कुछ पढ़ डाला कि वह जब किसी डॉक्टर से बात करते तो डॉक्टर भी उन्हें पूरा डॉक्टर समझकर अदब से बात करने लगता।
खत्रीजी ने डॉक्टर के सामने मुझे पेश किया और उसे मेरी बीमारी के बारे में बताया। डॉक्टर ने मुझे एमआरआई कराने की सलाह दी। एमआरआई की रिपोर्ट को देखकर डॉक्टर ने बताया कि यह कोई आनुवंशिक बीमारी है। डॉक्टर ने पूछा, “परिवार में किसी को ब्लड प्रेशर और गाउट की परेशानी है या थी?” मुझे तुरंत ही माँ की याद हो आई। अंतिम यात्रा को जाते वक्त मॉं को ‘खाली हाथ आना है, खाली हाथ ही जाना है’ के सिद्धांत के आधार पर स्वाहा कर दिया गया था। उनके जाने के बाद जो भी कीमती सामान बचा था, कुछ ही दिनों में उसका बंटवारा चंद क्षणों में ही हो गया। अब मॉं के खजाने में मेरे लिए कोई भौतिक पदार्थ शेष नहीं रहा तो जिंदगीभर जमा की गयी उनकी बीमारियों की विरासत मुझे मिल गईं। मैंने भी खुशी-खुशी मॉं का आशीर्वाद समझकर इसे स्वीकार कर लिया।
हल्द्वानी के डॉक्टर के मुताबिक़ इस बीमारी के लिए मुझे कुछ इंजेक्शन लगने थे जो यहां संभव नहीं थे। इसके बाद मैं दिल्ली के अपने मित्र हरीश जोशी की शरण में पहुंचा। वह मुझे एम्स दिखाने ले गए। वहां रोबोट प्रजाति के एक डॉक्टर ने मुझे बिना देखे ही दो महिने के बाद की तारिख दे दी। इसके बाद हरीशदा मुझे किसी स्पाइनल हॉस्पिटल में ले गए। यहाँ महंगा पर्चा काटा गया और चंद घंटों के बाद डॉक्टर साहब के दर्शन का सौभाग्य मिला। डॉक्टर साहब ने मेरा इतिहास जानने के बाद एक कंकाल को अपने टेबल में रखकर उस की हड्डियों की तफ़सील बतानी शुरू की, जो मेरे ज़रा भी पल्ले नहीं पड़ी। अलबत्ता कंकाल को देखकर मुझे अपना बचपन याद आ गया, जब हमें डराया जाता था कि गलत काम करने पर कंकाल जैसे ‘भूत’ मार डालते हैं। पांच मिनट हो चुके थे तो डॉक्टर साहब ने अपनी कलाई में बंधी महंगी घड़ी की ओर देखा और कहा कि आपका मामला फलाने डॉक्टर देखेंगे, आप वहीं चले जाओ।
थोड़ी देर पहले कटे पर्चे को लेकर हम दूसरे डॉक्टर के पास पहुंचे तो उसके चेंबर के बाहर बैठे शख्स ने पर्चे को देखते ही कहा कि यहां के लिए नया पर्चा बनाना पड़ेगा। फिर से नया पर्चा बनवाया और लाइन में लग लिए। आधे घंटे बाद नंबर आया। डॉक्टर ने पुराने रिकार्ड देखे तो उनकी आंखों में जैसे चमक आ गई। गंभीर मुद्रा बनाते हुए उन्होंने कहा, ‘इसके लिए पांच इंजेक्शन लगेंगे। इंजेक्शन काफी महंगे हैं। कोई इंश्योरेंस पॉलिसी है क्या आपकी?’ मेरे हामी भरते ही उन्होंने पर्चे पर कुछ लिखा और भर्ती करने की कार्यवाही शुरू कर दी। इंश्योरेंस पॉलिसी वालों से हरी झंडी मिलते ही मुझे भर्ती कर लिया गया। इंजेक्शन चार ही लगाये गए, जबकि बिल पांच का वसूला गया था। एक इंजेक्शन डॉक्टर साहब बिना डकार लिये पचा गए।
कुछ दिन बाद मैं दिल्ली छोड़कर वापस घर को भाग लिया। लॉकडाउन खत्म होने के बाद 25 जनवरी को एक बार फिर उसी डॉक्टर के पास जाना पड़ा। इस बार चार इंजेक्शन की वसूली के बावज़ूद सिर्फ़ दो इंजेक्शन लगे। देश 26 जनवरी की मस्ती में झूम रहा था और डॉक्टर साहब मेरे दो इंजेक्शन लूटकर लहालोट थे। जो इंजेक्शन मुझे लगने थे उनकी मात्रा 400 mg होनी चाहिये थी जो पूरी नहीं दी गयी। पैसे के लालच के आगे इंसानी जान की फिक्र कुछ डॉक्टरों को कम ही होती है।
दिल्ली के वसंतकुंज में इंडियन स्पाइनल हॉस्पिटल की स्थापना का सपना मेजर एचपीएस अहलूवालिया ने देखा था था और उन्होंने इसे हकीक़त में बदला भी था। भारतीय पर्वतारोहण फाउंडेशन के अध्यक्ष रह चुके मेजर एचपीएस अहलूवालिया का मानना था कि उन्हें पहाड़ों से ही इतना कुछ करने की ताकत मिली है। लेकिन अफसोस! अहूलवालिया के जाते-जाते उनका हॉस्पिटल भी दूसरे लूटेरे अस्पतालों की राह पर चल निकला।
इसके बाद हमने गंगा राम हॉस्पिटल का रुख किया। वहां भी एक बड़े-बुजुर्ग और अनुभवी डॉक्टर को दिखाया। जाहिर है उनकी फीस भी काफी महंगी थी। मात्र पांच मिनट में ही मेरी आधी-अधूरी बातें सुनी और पर्चे को टेस्ट से भरकर मुझे निपटा दिया। वे टेस्ट बहुत महंगे थे और बाद में पता चला कि कमीशन के चलते अनावश्यक ही उन्हें करवाया गया। अगले दिन रिपोर्ट दिखाने पर ढेर सारी दवाइयां लिख दी गईं। एक महीने बाद भी जब परेशानी जस की तस बनी रही तो डॉक्टर के सहायक को फोन कर समस्या बताई तो उसने वीडियो कॉलिंग पर बात कराने के लिए फीस गूगल करने को कहा। गूगल करने के बाद डॉक्टर साहब नमूदार हुए और फिर से दिल्ली आने का फ़रमान जारी कर ग़ायब हो गए। डॉक्टर के आदेश का पालन किया, फिर से ढेरों टेस्ट करवाए गए। शाम को जब उन्हें रिपोर्ट दिखाने पहुंचे तो पता चला कि शाम को वह किसी और प्राइवेट क्लीनिक में बैठते हैं। घंटों सफर के बाद जब वहां पहुंचे तो दो घंटे बाद नंबर आया। मुझे देखकर वह बुरी तरह भड़के और बोले, ‘ये टेस्ट अभी नहीं, बाद में करावाने थे।’ मैं इतना ही बोल सका, “सर एक तो आप मरीज की सुनते नहीं हैं और मेडिकल की भाषा में आप जो कुछ बोलते हैं, वह मुझे समझ में नहीं आता। गंवार हुए साहब हम लोग। गलती से यहां आ गया, अब कभी नहीं आऊँगा।” मैंने अपनी फाइल पकड़ी और बाहर निकल गया।
डॉक्टरों की लूट-खसोट से मैं अंदर तक निराशा से भर गया था। बीमारी को नियती मानकर मैंने फिर कभी इन लालची डॉक्टरों के पास न जाने की ठान ली और वापसी की ट्रेन पकड़ ली।
इधर फरवरी की शुरूआत में अचानक आँखों में दिक्कत होने लगी और कुछ दिनों बाद एक कान ने भी हड़ताल कर दी तो मुझे याद आया कि उम्र के साथ-साथ मॉं की भी आँखों की रोशनी कम होने लगी थी और बाद में उसे सुनाई भी कम देने लगा था। मैं सोचने लगा था कि आखिर मॉं को मुझसे इतना प्रेम क्यों रहा होगा!
हल्द्वानी में दो महीने तक आँख के डॉक्टरों के अलावा न्यूरो और कान के डॉक्टरों की परिक्रमा की। आँखों के डॉक्टरों की मशीनें तो मुझे देखकर मुस्कुराकर कहती प्रतीत होती थीं, “सब ठीक ही तो है, क्यों आ गए अब?” मन ही मन बतियाने वाली उन मशीनों के डर से मैंने वहां जाना छोड़ दिया।
इस बीच मित्रों ने सलाह दी कि नोयडा में डॉक्टर वी.के. तिवारी को एक बार दिखा लो। अच्छे डॉक्टर हैं। साल में एक बार नैनीताल में कैम्प भी लगाते हैं। मालूमात करने पर पता चला कि वह नैनीताल में विनोद पांडेजी के बाल सखा हैं। पांडेजी से बात की तो उन्होंने झटपट डॉ. तिवारी से मेरी बात करा दी। एक नई उम्मीद ले फिर से दिल्ली पहुँचा। नोयडा में डॉ. तिवारीजी के पुत्र डॉ. रुचिर तिवारी ने कई जांचों के बाद अगले दिन वैशाली के क्लीनिक में आँखों की मशीन द्वारा जांच की बात कही। डॉ. रुचिर तिवारी के केबिन के बाहर बोर्ड से पता लगा कि वह सात साल तक एम्स हॉस्पिटल में सीनियर रेजिडेंट रह चुके हैं।
डॉ. तिवारी के अस्पताल में भी एक बड़ी सी मशीन में आँखों की घंटेभर तक जांच हुई। अद्भुत थी वह मशीन। उसके भीतर झाँकने से ऐसा लगता था जैसे मैं ब्रह्मांड में करोड़ों तारों के बीच तैर रहा हूँ। टिमटिमाते तारों को देखते हुए मन बचपन की यादों में खो जाता था। बचपन में रात के आसमान में टिमटिमाते तारों की ओर इशारा कर बड़ी दीदी कहा करती थी, “मरने के बाद हर कोई तारा बन जाता है रे। अच्छे लोग सितारे बन जाते हैं।”
घंटेभर तक किर्र-किर्र करने के बाद मशीन ने चार-पांच पन्नों में अपनी भाषा में जो कुछ लिखा, उसके आधार पर डॉक्टर पिता-पुत्र ने समझाया कि नसों में सूजन की वजह से आँखों में दिक्कत हो रही है। इस मशीन की साफगोई से मेरी आँखें भर आई। वरना इससे पहले तो सभी मशीनों ने मेरा बायकॉट जैसा कर दिया था। डॉ. तिवारी के आत्मीय व्यवहार ने मेरा दिल खुश कर दिया था। उन्होंने तीन महिने की दवाइयां लिखीं और समझाते हुए कहा, “अब आँखों को दिखाने के लिए कहीं और चक्कर काटने की जरूरत नहीं। सब ठीक हो जाएगा। मेरी गारंटी है, कहो तो लिखकर दे देता हूं।”
आज तक अनगिनत डॉक्टरों से मेरा साबका पड़ा, जिनमें बहुत कम ही ऐसे थे जिनके आत्मीय व्यवहार से महसूस हुआ कि डॉक्टर यदि मरीज के साथ प्रेम से पेश आते हैं तो मरीज की आधी बीमारी बिन दवा के ही गायब हो जाती है। लेकिन पैसों के लालच और आगे बढ़ने की होड़ में कुछ निर्दयी डॉक्टरों के लिए मरीज मात्र एटीएम मशीन बन कर रह जाते हैं। मरीज को चंगा करने में उनकी ज़रा भी दिलचस्पी नही होती। वह उस जिंदा लाश को तब तक निचोड़ते रहते हैं जब तक कि उसकी रूह फ़ना न हो जाए।
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