प्रसिद्ध कालिका मंदिर की स्थापना दसवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने की थी। कहा जाता है कि कांडा क्षेत्र में काल का आतंक था। हर साल एक व्यक्ति की जान जाती थी। कैलाश यात्रा पर यहां पहुंचे जगतगुरु ने लोगों की रक्षा के लिए मां काली को स्थापित किया। कांडा के प्रसिद्ध कालिका मंदिर की स्थापना दसवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने की थी। कहा जाता है कि कांडा क्षेत्र में काल का आतंक था। हर साल एक व्यक्ति की जान जाती थी। कैलाश यात्रा पर यहां पहुंचे जगतगुरु ने लोगों की रक्षा के लिए मां काली को स्थापित किया। तब से यहां नवरात्रों के समापन पर भव्य मेले का आयोजन किया जाता है।
कांडा के कालिका मंदिर में नवरात्र पर लगने वाले दशहरा मेले में हजारों लोग शिरकत करते हैं। आस्था की इस परंपरा का इतिहास एक हजार साल पुराना होने की मान्यता है। लोक मान्यता के अनुसार इस क्षेत्र में काल का आतंक था। वह हर साल एक नरबलि लेता था। अदृश्य काल जिसका भी नाम लेता, उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती थी।
इससे लोग परेशान थे। दसवीं सदी में जगतगुरु शंकराचार्य कैलाश यात्रा पर जा रहे थे। उन्होंने वर्तमान कांडा पड़ाव नामक स्थान पर विश्राम किया। परेशान लोगों ने काल से जुड़ी आपबीती उन्हें सुनाई। जगतगुरु ने स्थानीय लोहारों के हाथों लोहे के नौ कड़ाहे बनवाए। लोक मान्यताओं के अनुसार उन्होंने अदृश्य काल को सात कड़ाहों के नीचे दबा दिया और उसके ऊपर एक विशाल शिला रख दी। उन्होंने यहां एक पेड़ की जड़ पर मां काली की स्थापना की। इसके बाद से वहां काल का खौफ खत्म हो गया। तभी से यहां प्रत्येक नवरात्र पर पूजा-पाठ का आयोजन होता है। दशमी पर लगने वाले मेले में हजारों श्रद्धालु शामिल होते हैं। यह मेला व्यापारिक गतिविधि का भी केंद्र है। 1947 में स्थानीय लोगों ने यहां मंदिर का विधिवत निर्माण किया।
पहले मंदिर में नवरात्र पर देवी को पेठा, छिपकली, सुअर, बकरा और भैंसे की पंचबलि दी जाती थी। हालांकि लोगों ने अब न्यायालय के आदेशों का पालन करते हुए बलि बंद कर दी है। मंदिर में कथा, भागवत, शतचंडी महायज्ञ होते रहते हैं। क्षेत्र के लोगों का कहना है कि जो भी भक्त मंदिर में सच्चे मन से आता है। माता उसकी सभी मनोकामना पूरी कर देती हैं।
तहसील मुख्यालय स्थित कांडा पड़ाव में कालिका माता का मंदिर पहले बहुत छोटा था। वर्ष 1998 में इसे भव्य रूप मिला है। मंदिर के पुजारी नाग कन्याल के कांडपाल परिवार जबकि पूजा पाठ की जिम्मेदारी नारायण गूंठ के परिवारों के पास है।