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टूरिज्म से अलग करके देखना होगा चारधाम यात्रा को।

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लेखक- हरीश जोशी, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पर्यावरणविद।

उत्तराखण्ड की विश्व विख्यात चारधाम यात्रा कुप्रबन्धन और बेतहाशा भीड़ के कारण चिन्ता का सबब बनते जा रही है।इस बार यात्रा के शुरुआती चरण में ही जिस तरह से मौतों की खबर आ रही है कहना ना होगा कि कहीँ फिर से 2013 जैसा मंजर न हो जाये।

उत्तराखण्ड में चारधाम यात्रा का पुरातन महत्व और परिस्थितिकी मैकेनिज्म रहा है।हाल के दशकों में पर्यटन उससे जुड़ी आय आदि के चश्मे से देखने की सरकारी नीतियों के चलते आस्था की बुनियाद पर खड़ी यह यात्रा न केवल ग्लैमर साबित हो रही है बल्कि अपने साथ कई तरह की अव्यवस्थाओं और आपदाओं को भी न्यौता दे रही है।
सच में कहा जाये तो पहाड़ के भूगोल और भूगर्भ तंत्र और विज्ञानं को समझे बिना इस तरह की यात्राओं के दूरगामी और सन्निकट परिणाम अवश्यम्भावी हैं।


अभी कोई लम्बा अरसा नहीं हुआ वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के जख्म अभी हरे ही हैं पर सवाल है कि क्या हमारा तंत्र इससे कुछ सबक ले।पाया? उत्तर है कतई नहीं।क्योंकि एन0 एच0,ऑल वेदर आदि जो भी नाम हों के चलते पहाड़ पूरी तरह से हिले हुए हैं प्रकृति का सामान्य चक्र भी इन पहाड़ों पर आपदा ही साबित हो रहा है। सड़कों पर वाहनों की संख्या उनकी गति सीमा को लेकर बनाये गये नियम पूरी तरह से कागजी बनकर रह गये हैं।सरकार का एक अधिष्ठान”ऑल इण्डिया रोड कांग्रेस” भी होता है जो सड़कों के निर्माण व संचालन में बड़ी भूमिका रखता है,और सड़कों पर वाहनों की संख्या उनकी भारवहन क्षमता का निर्धारण भी यहीं से हुआ करता है परन्तु उत्तराखण्ड की सड़कों के मामले में लगता है इस अधिष्ठान का शायद ही वजूद भी है। चारधाम यात्रा को सुगम बंनाने के सरकारी प्रयासों के चलते इन धामों के लिये संचालित हेली सेवायें भी यहाँ के पर्यावरण और पारिस्थिति तंत्र पर विपरीत प्रभाव ही डाल रही हैं बताने की जरूरत नहीं कि हिमालय की तरह ही हिमालय की बसासत और यहाँ का फ़्लोरा एन्ड फोना भी बेहद संवेदनशील होते हैं हेली सेवाओं की कानफोड़ू आवाजों से गुंजायमान हो रही पहाड़ की घाटियों ने सम्वेदनशीलता के चलते अपने प्राकृतिक तंत्र को गंवाया है।
सिर्फ और सिर्फ ग्लैमर की ओर बढ़ते जा रही आस्था की इस यात्रा को एक बार फिर से पुरातन स्वरूप में सहेजने की आवश्यकता प्रतीत होने लगी है तो इसके कारकों को भी समझा जाना चाहिये परन्तु वर्तमान में संचालित चारधाम यात्रा को देखकर लगता नहीं कि कोरोना काल के चलते पिछले दो वर्ष से लंबित इस यात्रा के इस बार संचालन को लेकर कोई खासा होमवर्क किया भी गया है?


सबसे बड़ी बात तो ये है कि नाजुक पहाड़ों में बसे इन धामों की क्षमता, उपलब्ध व्यवस्थाओं, आस्था की मर्यादाओं के अनुरूप ही यात्रियों को उतारा जाये। पर्सनल की बजाय सीमित किन्तु सर्वसुलभ पब्लिक ट्रांसपोर्ट व्यवस्था को तरजीह दी जाये कहना न होगा यदि जरूरी हुआ तो खास उम्र वर्ग के लिये भी मानक बनाने पड़ें तो इससे भी गुरेज नहीं होना चाहिये।
सुझावों की फेरहिस्त लंबी हो सकती है पर अमल तो हो।
बद्री केदार नीति नियंताओं को सन्मति दें ताकि बची रहे आस्था और टिकाऊ रहें पहाड़ एवं इन पहाड़ों की सामाजिक आर्थिकी।

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